* जंगल से ग्रामीणों के लगाव एवं जंगलवासियों की मार्मिक व्यथा देखने के लिए पधारें- http://premsagarsingh.blogspot.com ~ (कहानी जंगल की) पर. * * * * * * वनपथ की घटना /दुर्घटना के लिए पधारें- http://vanpath.blogspot.com ~ (वनपथ) पर.

सोमवार, 30 मार्च 2009

घरेलू पक्षियों-मुर्गी, बतख, हँस आदि को क्षति के कारण इनकी हत्या होती हैं

चाल तेंदुआ की तरह होती है तथा इन्हें सुबह-शाम खुले जंगलों में देखा जा सकता है। इन्हें शुष्क जंगल, घास और झाड़ियों वाले समतल स्थान वासक्षेत्र के रूप में पसन्द है। छोटे शरीर की तुलना में इनकी फुर्ती तथा शक्ति ज्वादा होती है तथा ये अपने से कुछ बड़े जंतुओं का भी शिकार कर लेते हैं। छोटे स्तनधारी जानवर, पक्षी आदि इनके आहार हैं। गाँवों में घुसकर ये मुगियों को भी मार ले जाते हैं। अन्य बिल्लियों की तुलना में पैर लम्बा और पूँछ छोटा होता है तथा इन्हें जंगली बिल्ली (Jungle Cat) के नाम से जाना जाता है।
नाम : जंगली बिल्ली
अंग्रेजी नाम : (Jungle Cat)
वैज्ञानिक नाम : (Felis chaus)
विस्तार : भारत तथा दक्षिण-पश्चिम एशिया,श्रीलंका, म्यांमार, इंडोचाइना तथा उत्तरी अफ्रीका।
आकार : सिर से शरीर करीब 70 से0मी0 तथा पूँछ 60 से0मी0 लम्बा।
वजन : पाँच से सात किलोग्राम।
चिडियाघर में आहार : चिकेन ।
प्रजनन काल : जनवरी-अप्रैल और अगस्त-नवम्बर।
प्रजनन हेतू परिपक्वता : दो वर्ष।
गर्भकाल : 60 दिन।
प्रतिगर्भ प्रजनित शिशु की संख्या : दो से चार ।
जीवन काल : करीब 15 वर्ष ।
प्राकृति कार्य : प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखना तथा पक्षियों और छोटे स्तनधारी जंतुओं की संख्या पर प्राकृतिक नियंत्रण में सहायता करना आदि।
प्रकृति में संरक्षण स्थिति : संकटापन्न (Threatened) ।
कारण : घरेलू पक्षियों-मुर्गी, बतख, हँस आदि को क्षति के कारण इनकी हत्या ।
वैधानिक संरक्षण दर्जा : संरक्षित, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची – II में शामिल।

सोमवार, 23 मार्च 2009

फूँक मारने से बच्चे तन्दुरूस्थ हो जाते हैं!

दीमक तथा मधु इन्हें विशेष रूप से पसन्द है। दीमक का टीला और वहाँ की जमीन अपने नाखून से खोद कर ये दीमक को हवा के साथ मुँह में खींच लेते हैं। मधु के लिए ये मधु का छत्ता वाले पेड़ों पर चढ़ जाते हैं। इनमें काम-शक्ति बहुत तीव्र एवं गतिमान होती है। इनकी काम-क्रिया घंटो लगातार एवं विद्युतगति से होती है। माऊण्टिंग (Mounting) के ऊपरांत इनकी काम-क्रिया करीब 5 मिनट या अधिक समय तक विद्युतगति से होती है एवं करीब 30 सेकण्ड से 2 मिनट तक के विराम के बाद विना उतरे वही क्रम बार-बार दुहराते है जो घंटो चलता रहता है। अगर इनको छेड़ा नहीं जाय तो कामवासना पूरे दिन/कुछ दिन तक भी चल सकता है। (उक्त तथ्य प्रजनन के संदर्भ में भगवान बिरसा जैविक उद्यान, राँची में पदस्थापन काल के दौरान कई दिनों के अवलोकन के उपरांत नोटिस किया) इनके बाल काले, घने, लम्बे एवं शुष्क होते हैं तथा ये देसी भालू के नाम से जाने जाते हैं। नर भालू मादा भालू से बड़ा होता है। यह एक कुशल चढ़ाकूँ (Climber) होता है तथा पेड़ों पर कुशलता से चढ़ जाता है। भालू आमतौर पर पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं तथा गर्मी के मौसम में घाटियों में उतर आते हैं जहाँ जंगली फलों की प्रचुरता होती है। जामून, बेर, बेल, महुआ फूल एवं नरम घास खाते हैं लेकिन साधारणतया घास इनका नियमित भोजन नहीं है। कई मौके पर इन्हें खजूर का ताड़ी भी पीने के भी उदाहरण मिले हैं। दीमक की खोज में अपने मजबूत एवं लम्बे नाखून से जमीन की गहराई तक खोदते हैं तथा हवा को तीब्र गति से खींच कर दीमक को उदर में उतारते हैं, जिससे फूँक मारने की ऊँची आवाज भी निकलती रहती है।
खतरनाक कब होते हैं:-
मादा भालू में मातृत्व अत्यंत मजबूत होता है तथा शिशुवाली मादा का सामना करना अत्यंत खतरनाक है। ये नवजात के आस-पास जाने पर घातक ढ़ग से आक्रमण कर देते हैं। नवजातों के प्रति अत्याधिक सुरक्षा देने के चक्कर में इनके शिशु की मौत भी हो जाती है। बच्चे के प्रति अति संवेदनशील होने की वजह से अपना भोजन भी बहुत दिनों तक त्याग देते हैं जिससे ये काफी कमजोर हो जाते हैं।
विशिष्टता: इनकी आयु लम्बी होती है लेकिन बच्चे जनने की दर काफी धीमी/कम होती है।
मिथ्यामति:
1. ग्रामीण परिवेश में बच्चों को भालू से फूँक मरवाये जाते हैं ताकि वह बिमारी मुक्त एवं तन्दुरूस्थ हो जायें, जो पुर्णतया मिथ्या है। असल में हवा खिंचने की इनकी अदभुत शक्ति, तीव्रता एवं फूँक मारने की ऊँची आवाज है, जो जीवन-यापण के सहायक तत्व मात्र हैं।
2. महिलाओं के साथ सान्निध्य/समागम की बात भी निरर्थक है। वस्तुतः भालू अकेले पुरूष/महिला के लिए घातक होते हैं एवं काफी आक्रमक हो जाते हैं तथा ये अपना हमला तबतक बन्द नहीं करते जबतक प्रतिद्वन्दी की शारीरिक गतिविधियाँ शिथिल न पड़ जाये अथवा उसके चँगूल से बच न निकलें।
(संदर्भ: “सरस पायस” के ब्लॉगर “रावेंद्रकुमार रवि जी” का प्रेक्षण)
नाम : देसी भालू
अंग्रेजी नाम : (Sloth Bear)
वैज्ञानिक नाम : (Melursus ursinus)
विस्तार : भारत और श्रीलंका के पहाड़ी वनों में।
आकार : 2 से 2.75 फीट ।
वजन : 65-145 किलोग्राम।
चिडियाघर में आहार : गेहूँ, चावल, गुड़ तथा दुध का खीर एवं फल।
प्रजनन काल : गृष्म काल।
गर्भकाल : 210 दिन।
प्रतिगर्भ प्रजनित शिशु की संख्या : एक से तीन।
जीवन काल : करीब 40 वर्ष ।
प्राकृति कार्य : प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखना, दीमक पर नियंत्रण रखना, विभिन्न फलों के बीज अपने मल के साथ बड़े क्षेत्र में फैलाना, बड़े परभक्षियों का आपात्कालिक आहार बनना आदि।
प्रकृति में संरक्षण स्थिति : संकटापन्न (Threatened) ।
कारण : अविवेकपूर्ण मानवीय गतिविधियों (यथा वनों की अत्यधिक कटाई, चराई, वनभूमि का अन्य प्रयोजन हेतु उपयोग) के कारण इनके प्राकृतवास (Habitat) का सिमटना एवं उसमें गुणात्मक ह्रास (यथा आहार,जल एवं शांत आश्रय-स्थल कि कमी होना), अवैध व्यापार, हत्या आदि।
वैधानिक संरक्षण दर्जा : अतिसंरक्षित, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची – I में शामिल।

शनिवार, 21 मार्च 2009

शेर का बाघों को सलाम

अंतरराराष्ट्रीय क्रिकेट में कुल 85 शतकों के साथ शिखर पर खड़े क्रिकेट जगत का शेर सचिन तेंदुलकर ने न्यूजीलैंड के खिलाफ शुरुआती टेस्ट की पहली पारी में 160 रनों की धमाकेदार पारी खेलकर भारतीय टीम को 520 रनों के मजबूत स्कोर पर ला खड़ा किया और न्यूजीलैंड पर 33 वर्षो के सुखे को समाप्त करते हुए टेस्ट श्रृंखला में निर्णायक बढ़त दिला दी। न्यूजीलैंड के खिलाफ बनाए गए अपने शानदार 42वें टेस्ट शतक को उतने ही शानदार जानवर ‘बाघ’ को समर्पित कर दिया है। तेंदुलकर ने कहा कि वो टीम इंडिया के साथ मिलकर बाघों को बचाना चाहते हैं। सचिन ने इसके बाद कहा, “मैं अपने इस शतक को बाघ संरक्षण को समर्पित करता हूं क्योंकि इस दौरे के शुरु में ही पूरी टीम ने यह फैसला किया था। मैंने इस सिलसिले में कई संदेश भी दिए हैं, इसलिए मैं इस शतक को देश में बाघ संरक्षण को समर्पित करता हूं”।
सचिन ने कहा, 'जब मैं छोटा था तब मुझे बताया गया था कि डाइनासौर नाम का एक जंतु होता है। कल शायद हम आने वाली पीढ़ी को बाघ के बारे में इसी तरह बताएंगे। बाघों को हमारे जंगलों से लुप्त होने से बचाने के त्वरित उपाय करने होंगे।' उन्होंने कहा, 'मैं इस क्षेत्र का विशेषज्ञ तो नहीं हूं लेकिन मेरा मानना है कि बाघों को जंगल में निर्बाध रहने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। जिस तरह हम अपने घरों में रहते हैं, जंगल ही बाघ का घर हैं। हमें पर्यावरण का संतुलन नहीं बिगाड़ना चाहिए।' अपने संदेश में उन्होंने कहा था कि यह नायाब प्रजाति भारत की समृद्ध और विविध वन्य जीव विरासत की द्योतक है। हमें यह सुनिश्चित करना ही होगा कि यह शानदार जानवर खत्म न होने पाए।
सचिन ने पहले टेस्ट की पूर्व संध्या पर पत्रकारों से बातचीत के दौरान भी भारत में बाघों की घटती संख्या पर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा, ' सदी की शुरुआत में भारत में 40000 बाघ थे। आज यह संख्या घटकर 1700 रह गई है और हर महीने एक बाघ कम हो रहा है। बाघों के शिकार की बढ़ती घटनाएं भी चिंता का सबब है।'
उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि भारत में बाघों की तेजी से घटती संख्या को रोकने की दिशा में कुछ किया जाए, नहीं तो हमारे राष्ट्रीय पशु का अस्तित्व ही मिट जाएगा।
गौरतलब है कि बाघ दुनिया में सबसे तेजी से लुप्त होने वाले पशुओं में शामिल है। 20वीं सदी की शुरुआत में धरती पर बाघों की संख्या लगभग एक लाख थी, लेकिन अब दुनिया में लगभग 2,500 बाघ ही जीवित हैं।
अब देखने वाली बात ये है कि शिक्षित एवं संवेदनशील समाज तो बाघ के संरक्षण के प्रति चिंतित हो गयी है लेकिन ये कितने प्रतिशत लोग है। असली सलाम तो बाघों को तब मिलेगा जब किसी बाघ की मौत हमारे कारण न हो एवं बाघों के संवर्धन के प्रति विश्व समुदाय का शत-प्रतिशत आवादी समर्पित हो जाय। सचिन तेन्दुलकर के बाघों के संरक्षण के लिए आगे आने से बाघों के संरक्षण को काफी बल मिलेगा। एक बड़ा प्रशंसक वर्ग उनका अनुसरण कर बाघ संरक्षण को अंगीकार करेगा।
सचिन तेंदुलकर के इस मिशन को हिन्दुस्तान की जनता की तरफ से मेरा सलाम!

मंगलवार, 17 मार्च 2009

वन्य गज : कभी मेहमान कभी परदेशी

वन्य गज गणना के माध्यम से गजो की संख्या का आकलन किया जाता है। हाथियों का लगभग एक दिन में 15 घंटा का समय सिर्फ खाना खाने में गुजरता है जबकि भोजन के रूप में 150 किलोग्राम हरे चारे की आवश्कता होती है। इस दौरन ये आहार के खोज में लम्बी दूरी तय करते हैं। चूँकि ये झुँण्ड में चलते हैं और इनका अधिकतम समय आहार एवं पानी की खोज में गुजरता है इसीलिए भोजन की तलाश में अपने भोजन पथ पर आगे बढ़ते-बढ़ते राज्य की सीमा पार कर जाते हैं। झारखण्ड राज्य की सीमा (सिंहभूम क्षेत्र) बंगाल एवं उड़ीसा राज्य की वन सीमा मिला हुआ है। वन सीमा क्षेत्र सटे होने की वजह से कभी-कभी झारखण्ड हाथी बंगाल की सीमा में घुस जाते हैं एवं लम्बे समय तक भोजन की खोज में वहीं अपना निवास भी बना लेते हैं जबकि ठीक इसके विपरीत बंगाल के हाथी भी आहार खोज में झारखण्ड की सीमा में घुस जाते हैं एवं लम्बे समय तक यहाँ रह जाते हैं जिससे झारखण्ड में हाथियों की संख्या बढ़ जाती है, तो कभी कम भी हो जाती है। मेहमान और परदेशी बनने की अवधि तब बढ जाती है जब मेहमान हाथी वन सीमा क्षेत्र से बाहर जा कर किसी शिशु को जन्म दे। ऐसी परिस्थिति में उन्हें शिशु के बड़े होने होने तक एक निश्चित क्षेत्र में हीं रहना पड़ता है। इस दरमियान हाथियों का पूरा झुँड़ लम्बे समय एक हीं स्थान पर रह्ते हैं लेकिन उनकी भोजन की समस्या विकराल रूप लेती है, तब ये फसलों की ओर रूख करते हैं जिससे ग्रामीण आवादी को भी क्षति पहुँचती है जो मानव-हाथी भिड़ंत का एक उदाहरण भी है।
विभिन्न वन्य गज गणना में उपरोक्त कारण के चलते हीं वर्ष-2002 में हाथियों की संख्या-772 तो वर्ष-2007 में हाथियों की संख्या-624 जबकि वर्ष-1993 में हाथियों की संख्या-450 थी। अतः हम कह सकते है कि झारखण्ड में हाथियों की संख्या इनके प्राकृतवास में गुणात्मक ह्रास तथा जंगलों में इनके आहार एवं जल की कमी के बावजूद काफी बढ़ रही है।
एक नजर में 2007 के गज गणना की रिपोर्ट :-
8 मई से 11 मई 2007 तक सम्पूर्ण झारखण्ड राज्य के वनों में वन्य गज गणना के परिणाम का विश्लेषण मुख्य वन संरक्षक, वन्य प्राणी एवं जैव विविधता, झारखण्ड के कार्यालय कक्ष में किया गया जो निम्नवत है:-
1. वयस्क नर (8’ से अधिक ऊँचाई)
[दंतयुक्त – 99, मकना – 45] – 144
2. वयस्क मादा (7’ से अधिक ऊँचाई) – 249
3. वयस्क (अज्ञात लिंग) - 28
4. अल्प वयस्क नर (5’-8’) - 34
5. अल्प वयस्क मादा (5’-7’) - 30
6. अल्प वयस्क (अज्ञात लिंग) - 18
7. किशोर (4’-5’) - 67
8. शिशु (4’ से कम) - 54
गणना परिणाम के विश्लेषण से निम्न तथ्य स्पष्ट होते हैं:-
Ø लिंग अनुपात (नरःमादा) वयस्क - 1:1.73, अल्प वयस्क – 1:0.88
Ø दंतयुक्त हाथियों का प्रतिशत – 19%
Ø दंतयुक्तःमकना अनुपात - 1:0.45
Ø वयस्क मादाःशिशु अनुपात - 1:0.22
Ø हाथियों का घनत्व - 28 हाथी/1000 वर्ग कि0मी0
Ø(अथवा 1 हाथी/37.82 वर्ग कि0मी0)
गणना प्रतिवेदन के अनुसार गज आरक्ष सिंहभूम एवं व्याघ्र आरक्ष पलामू में क्रमशः 317 एवं 216 हाथी है। गज आरक्ष एवं व्याघ्र आरक्ष में sex ratio (नरःमादा) क्रमशः 1:1.8 एवं 1:2.06 है। इन आरक्षों में हाथियों का घनत्व प्रति 100 वर्ग कि0मी0 क्रमश: 7 एवं 21 है।
सिंहभूम गज आरक्ष – 317
पलामू व्याघ्र आरक्ष – 216
अन्य वन क्षेत्र - 91

रविवार, 15 मार्च 2009

“उल्लू की आँख खाने से आँखों की रौशनी बढ़ती है!”

गुजरात में उल्लू के आँख का प्रयोग लोग भोजन के रूप में करते हैं। ऐसी मान्यता है कि उल्लू की आँखें खाने से आँखों की रौशनी बढ़ती है। इसकी गुर्दा भी ऊँचे दाम पर बिकती है। वहीं उनके पैर और माँस का प्रयोग भोजन के साथ दवा के रूप में किया जाता है। विदेशों में उल्लू के पैर और पंख की काफी माँग है।
विशेषज्ञों की राय में उल्लू के माँस और पैर से कोई दवा नहीं बनता बल्कि ये अल्प जानकारी एवं सुनी-सुनाई रूढ़ीवादी बातें हैं, जिससे अल्पसंख्यक उल्लू प्रजाति के पक्षियों के जीवन पर खतरा मंडरा रहा है। मध्य प्रदेश में कई जानवरों के चमड़े एवं चर्वी से दवा बनायी जाती है लेकिन इसके विश्लेशण की अभी आवश्यकता है। इन सब भ्रांतियों की वजह से गुजरात एवं मध्यप्रदेश उल्लू के अंगो का बाजार बन गया है, जबकि झारखण्ड और बिहार से उल्लूओं का सफाया हो रहा है। ये वेजुबान एवं संकटापन्न प्राणी, विलुप्प्ति के कगार पर इन अन्धविश्वासों के चलते पहुँच गये हैं।
वन विभाग का ध्यान उल्लूओं की लगातार हो रही कमी की ओर गया है तथा इनके संरक्षण की कारवाई शुरू हो गयी है। वहीं केन्द्र सरकार ने भी इस ओर पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखने हेतु एक दिशा निर्दश राज्य सरकारों को भेजी हैं। केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने सभी राज्यों को उल्लूओं की गणना कर उनके संरक्षण के लिए उपाय करने का निर्देश दिया है।
अतः हम कह सकते हैं कि अज्ञानता एवं रूढ़ीवादी विचार के वाहक कुछेक लाभुक लोग आम जनता के बीच उल्लू के अंगों के बारे भ्रांतियाँ फैलाकर जहाँ अपने धनोपार्यन का साधन बना लिया है, वहीं इस प्रजाति के जीवन को समाप्त करने का जुगाड़ कर दिया है। एक ओर इस प्राणी के इस धरती से विदाई की तैयारी कर दिया है, जिसका परिणाम ये होगा कि पर्यावरणीय असंतुलन पैदा होगा, वहीं आनेवाली पीढ़ी उल्लू को किताबों के पन्ने पर सिर्फ चित्र के रूप में देखेंगे। इसे रोकना हमारी भी जिम्मेवारी इस सामाजिक व्यवस्था में बनती है, इसपर गौर किया जाना चाहिए एवं इस रूढ़ी को दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए।

सोमवार, 9 मार्च 2009

काँटों को तीर की तरह छोड़ कर आक्रमणकारियों को मारते हैं!

पथरीली पहाड़ियों तथा घास के मैदानवाले जंगल इन्हें पसन्द हैं। दिन में ये पथरीली गुफा अथवा जमीन में बने बिलों में रह्ते हैं। इनकी दृष्टि कमजोर होती है परंतु सुनने और सूँघने की शक्ति तीक्ष्ण होती है। प्रकृति में कोमल पत्ते एवं कली, कन्द-मूल, फल तथा दाना इनका आहार है। इनके काँटे, बालों का ही परिवर्तित रूप है जो इनकी सुरक्षा का साधन है। खतरा का आभास होने पर ये इन काँटों को खड़ा कर लेता हैं तकि परभक्षी इन्हें नहीं मार सकें। शरीर के उपर लम्बे काँटों (18-20 से0मी0) के कारण हीं इनकी पहचान की जा सकती है तथा “शाही” के नाम से जाना जाता है। यह अवधारणा गलत है कि ये काँटों को तीर की तरह छोड़ कर आक्रमणकारियों को मारते हैं। असल में रगड़ खाने पर काँटें उखड़ कर गिरते हैं जिनके स्थान पर नये काँटे निकल भी आते हैं। यहीं काँटा के लिए इनकी हत्या भी होती है।
नाम : शाही
अंग्रेजी नाम : (Indian Porcupine)
वैज्ञानिक नाम : (Hystrix indica)
विस्तार : पूरे भारत के अतितिक्त श्रीलंका, बलुचिस्तान, ईरान तथा मध्य पूर्व एशिया में।
आकार : 50-60 से0मी0 लम्बा।
वजन : 11-18 किलोग्राम।
चिडियाघर में आहार : चना, मकई, दर्रा, कटा हुआ गाजर, चुकन्दर, बैंगन तथा केला।
प्रजनन काल : पूरा वर्ष।
प्रजनन हेतू परिपक्वता : 11 माह।
गर्भकाल : 90 दिन।
प्रतिगर्भ प्रजनित शिशु की संख्या : दो से चार ।
जीवन काल : करीब 20 वर्ष ।
प्राकृति कार्य : प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति का अस्तित्व कायम रखना तथा वनस्पति को आहार बनाकर उन पर प्राकृतिक नियंत्रण में सहयोग करना आदि।
प्रकृति में संरक्षण स्थिति : असुरक्षित (Threatened);
कारण : माँस तथा काँटा के लिए हत्या आदि।
वैधानिक संरक्षण दर्जा : संरक्षित, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची – IV में शामिल।

गुरुवार, 5 मार्च 2009

टस्क वाले को “टस्कर” जबकि अन्य “मकना” : माँ के गर्भ में रहता है 22 माह

एशियाई हाथी का आकार कुछ छोटा, कान काफी छोटे, पैरों में तीन नाखुन के स्थान पर चार नाखुन तथा सूँढ़ के अंत में दो होठ के स्थान पर केवल एक ऊपरी होठ ही रहता है। एशियाई हाथियों में कुछ नरों के ऊपरी जबड़ा के इनसाइजर का दूसरा जोड़ा बढ़ कर काफी बड़ा हो जाता है और बाहर निकले इन दाँतों को “टस्क” कहते हैं। टस्कवाले नर हाथियों को “टस्कर” कहते हैं जबकि वैसे नर जिनका यह दाँत बढ़ कर बाहर नहीं निकलता है उन्हें “मकना” कहते हैं। मकना हाथियों का सूँढ़ ज्यादा मजबूत होता है। सूँढ़ वस्तुतः हाथी के ऊपरी होठ और नाक का समेकित, परिवर्तित रूप है तथा हाथी के लिए यह एक अपरिहार्य अंग है जो किसी चीज को पकड़ने, साँस लेने, सूँघने एवं खाने-पीने तथा पानी और धूल का स्नान कराने के अंग के रूप में कार्य करता है। अफ्रीकी हाथियों में नर तथा मादा दोनो के टस्क हो सकते हैं। हाथियों में गर्भ काल काफी लम्बा होत है। ये करीब 20-22 माह बाद शिशु को जन्म देते है जो इनकी विशिष्टता है।
हाथी पृथ्वी का सबसे बड़ा जमीनी जानवर है जिसके कन्धे की ऊँचाई तीन मीटर से कुछ अधिक तक हो सकती है। विश्व में इनकी दो प्रजातियाँ विद्यामान है, एशियाई एवं अफ्रीकी। हाथी आमतौर पर कुछ से दर्जनों के समूह में रहते हैं तथा भोजन और पानी की खोज में भ्रमणशील रह्ते हैं। घास,पत्ते, डालियाँ, जड़ आदि इनके आहार हैं तथा एक हाथी एक दिन में करीब 150 किलोग्राम तक आहार ले सकता है। हाथी दाँत के लिए अवैध शिकार के कारण टस्करों की संख्या अत्यंत कम हो गयी है। विगत दो-तीन दशकों में झारखण्ड में इनकी संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई है जबकि इनके प्राकृतवास में गुणात्मक ह्रास हुआ है तथा जंगलों में इनके आहार एवं जल की कमी हो गई है जिसकी तलाश में इनके झुण्ड जंगल से बाहर निकल रहे हैं तथा मानव-हीत से टकराव हो रहा है।
नाम : एशियाई हाथी
अंग्रेजी नाम : Asiatic Elephant
वैज्ञानिक नाम : Elephas maximus
आकार : नर- 3.00-२.50 मी०, मादा- करीब २.7५-2.15 मी०।
वजन : तीन से पाँच मेट्रिक टन ।
चिडियाघर में आहार : फुलाया चावल, मसूर और चना, गुड़, नमक, केला, हरा घास और ताजा पत्ते तथा छाल आदि।
प्रजनन काल : बरसात का उत्तरार्द्ध और पहला शुष्क माह।
प्रजनन हेतू परिपक्वता : 15-18 वर्ष।
गर्भकाल : 20-22 माह ।
प्रतिगर्भ प्रजनित शिशु की संख्या : एक
जीवन काल : करीब 80 वर्ष बंदी अवस्था में
प्राकृति कार्य : प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति का अस्तित्व कायम रखना, वनस्पतियों की यथास्थिति तथा उत्पादकता बनाए रखना, शिशु हाथियों का बड़े परभक्षियों के लिए आपात्कालिक आहार होना आदि।
प्रकृति में संरक्षण स्थिति : संकटापन्न (Endangered)।
कारण : अविवेकपूर्ण मानवीय गतिविधियों (यथा वनों की अत्यधिक कटाई, चराई, वनभूमि का अन्य प्रयोजन हेतु उपयोग) के कारण इनके प्राकृतवास (Habitat) का सिमटना एवं उसमें गुणात्मक ह्रास (यथा आहार,जल एवं शांत आश्रय-स्थल कि कमी होना), आहार-जल की तलाश में बाहर निकलने पर मानव-हीत से टकराव (यथा जान-माल की क्षति) के कारण हत्या, हाथी दाँत के लिए टस्करों की हत्या आदि।
वैधानिक संरक्षण दर्जा : अति संरक्षित, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची - I में शामिल
राँचीहल्ला के ब्लॉगर आदरणीय नदीम अख्तर जी ने मेरे लेख- “घरेलू बिल्लियों के साथ भी प्रजनन देखा गया है” पर टिप्पणी के माध्यम से हाथी पर जानकारी चाही थी। उक्त लेख के साथ एक और लेख (जल्द ही-“वन्य गज : कभी मेहमान कभी परदेशी”) श्री नदीम अख्तर को समर्पित है ।

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