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गुरुवार, 10 जून 2010

अक्सर ये पानी से निकल कर और मुँह खोलकर धूप सेंकते हैं

मछली, कछुआ, जल-पक्षी और यहाँ तक कि छोटे हिरण और जंगली सुअर इनके आहार हैं। जाड़े के मौसम में जब तापमान काफी गिरा रहता है तब ये ज्यादा सक्रिय नहीं रहते हैं, आहार भी नहीं लेते हैं और मिट्टी अथवा पत्थरों में माँद बनाकर उसमें निष्क्रिय पड़े रहते हैं। ये मानव-भक्षी नहीं होते परंतु अपना वास–क्षेत्र तथा शिशुओं की सुरक्षा में मनुष्य को भी मार सकते हैं। दलदली मगरमच्छ मीठे जल में रहनेवाले सरीसृप हैं। गर्मी के दिनों में जब नदी-नाले और झील सूख जाते हैं तब ये पानी की तलाश में लम्बी दूरी तक चले जाते हैं और फिर पानी उपलब्ध होने पर वापस आ जाते हैं। अक्सर ये पानी से निकल कर और मुँह खोलकर धूप सेंकते हैं जो शरीर के तापमान को नियंत्रित करने का तरीका है।
उदभव : करोडों वर्ष पूर्व जब गर्भरक्तधारी पक्षियों तथा स्तनपायी जंतुओं का प्रादुभार्व नहीं हुआ था।
विस्तार : भारत, श्रीलंका एवं ईरान के झीलों तथा नदी-नालों में।

हिन्दी नाम : दलदली मगरमच्छ
अंग्रेजी नाम : Marsh crocodile
वैज्ञानिक नाम : Crocodylus palustris
आकार : लम्बाई 4 मी0 तक, पेट का घेरा 1.06 मी0 तक
वजन : 200 किलोग्राम तक
प्रजनन काल : जनवरी-मार्च
इंक्युबेशबन अवधि : 60-90 दिन, स्थलीय तापमान के अनुसार
हैचलिंग : लम्बाई- 325-375 मि0मी0, वजन- 75-97 ग्राम
चिडियाघर में आहार : महिष मांस, मछली

अण्डे की संख्या : 3-40
जीवन काल : करीब 100 वर्ष
प्राकृतिक कार्य : प्रजनन कर अपनी प्रजाति का अस्तित्व कायम रखना, मछलियों तथा छोटे शाकाहारी जानवरों की संख्या नियंत्रित करना आदि।
प्रकृति में संरक्षण स्थिति : संकटापन्न (Endangered);

कारण : अविवेकपूर्ण मानवीय गतिविधियों (यथा नदियों में अत्यधिक घुसपैठ तथा विदोहन, वनों की अत्यधिक कटाई, चराई, वनभूमि का अन्य प्रयोजनों हेतु उपयोग आदि) के कारण इनके प्राकृतवास (Habitat) का सिमटना एवं उसमें गुणात्मक ह्रास (यथा आहार, जल एवं शांत आश्रय-स्थल कि कमी होना), चमड़ा के लिए शिकार तथा मानव-हित से टकराव (यथा जान-माल की क्षति आदि) के कारण हत्या.
वैधानिक संरक्षण दर्जा : अति संरक्षित, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची - १ में शामिल.

बुधवार, 26 मई 2010

अचानक आक्रमण कर शिकार का गला अपने मुँह से पकड़ कर मारते हैं

इनका रंग पीला-भूरा होता है जिस पर छोटे, काले पुष्पाकृति की छापें बनी रहती हैं। दिन में ये गिरे –पड़े वृक्षों के नीचे या कन्दराओं में बनी माँद अथवा वृक्ष के ऊपर विश्राम करते हैं तथा शाम होते ही अपने आहार के लिए सक्रिय हो जाते हैं। बिल्ली प्रजाति के बड़े जानवरों में सर्वाधिक विस्तारवाला तेन्दुआ जंगलों तथा घास के मैदान के अतिरिक्त रेगिस्तानी क्षेत्र में भी पाये जाते हैं। आमतौर पर तेंदुआ अकेले विचरण करता है, परंतु प्रजनन के लिए जोड़ा बनाता है। छोटे आकार के हिरण, मवेशी तथा अन्य पशु इनके आहार हैं। वृक्ष पर चढ़ने में ये दक्ष होते हैं और कभी-कभी वृक्ष से छलांग लगाकर नीचे से जा रहे शिकार को धर-दबोचते हैं। आमतौर पर अचानक आक्रमण कर शिकार का गला अपने मुँह से पकड़ कर मारते हैं । जंगलों पर वर्तमान में बढे हुए मानवीय दबाव की स्थिति में भी ये अपना अस्तित्व बचाये रखने में सर्वाधिक सफल है क्योंकि ये मानवीय आबादी के समीप वृक्षों पर भी रह सकते हैं जहाँ घरेलू पशु-पक्षी आहार के लिए आसानी से मिल जाते हैं।

विस्तार : पूरा भारत, श्रीलंका तथा अफ्रिका

हिन्दी नाम : तेन्दुआ

अंग्रेजी नाम : Leoparad, panther

वैज्ञानिक नाम : Panthera pardus

आकार : नर की औसत लम्बाई-2.15 मी० ( पुँछ सहीत) होती है जब कि मादा नर से 30 से. मी. छोटी होती है।

वजन : नर-65-70 किलोग्राम, मादा- 50-65 किलोग्राम

प्रजनन काल : पूरा वर्ष

गर्भकाल : 90-105 दिन

चिडियाघर में आहार : महिष माँस, चिकेन एवं दूध

प्रजनन हेतू परिपक्वता : ढ़ाई से चार वर्ष

प्रतिगर्भ प्रजनित शिशु की संख्या : दो (कभी-कभी तीन या चार)

जीवन काल : करीब २० वर्ष

प्राकृति कार्य : प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति का अस्तित्व कायम रखना, शाकभक्षी जानवरों की संख्या नियंत्रित कर वनस्पति एवं शाकाहारी जानवरों के बीच संतुलन बनाये रखना आदि.

प्रकृति में संरक्षण स्थिति : संकटापन्न (Endangered)

कारण : अविवेकपूर्ण मानवीय गतिविधियों (यथा वनों की अत्यधिक कटाई, चराई, वनभूमि का अन्य प्रयोजन हेतु उपयोग) के कारण इनके प्राकृतवास (Habitat) का सिमटना एवं उसमें गुणात्मक ह्रास (यथा आहार,जल एवं शांत आश्रय-स्थल कि कमी होना), शारीरिक अवयवों (यथा चमड़ा, हड्डी, नाखून आदि) के लिए तथा मानव-हित से टकराव (यथा मवेशियों को क्षति आदि) के कारण हत्या.

वैधानिक संरक्षण दर्जा : अति संरक्षित, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची - १ में शामिल.

शनिवार, 22 मई 2010

घड़ा का उपयोग प्रजनन काल में स्वर-अनुनादक के रूप में और समागम के लिए होता हैं

तेजी से बहते पानी में भी ये अच्छे तैराक हैं, परंतु जमीन पर पेट के सहारे चलते हैं। मादा नदी के किनारे बालू के घोंसलों में अंडे देती है, उन्हें सेती है तथा शिशुओं को अण्डों से निकलने में सहायता करती है और उसके बाद छिछले पानी में अपने मुँह में कोमलता से पकड़ कर ले जाती है और वहाँ भी परभक्षियों यथा बड़ा कछुआ, बड़ी मछली तथा चील आदि से उनकी रक्षा करती है। इसके शीर्ष पर कार्टिलेज की घडानुमा संरचना बनी होती है जिसके कारण इसका नाम “घडियाल” पड़ा है। नर में यह घड़ा बड़ा होता है जिसका उपयोग प्रजनन काल में स्वर-अनुनादक के रूप में और समागम के लिए होता है। घड़ियाल का थूथना पतला और लम्बा होता है। वयस्क घड़ियाल अपने शरीर के तापमान नियंत्रण के लिए नदी किनारे अथवा नदी के बीच टापूओं पर धूप सेंकते हैं। इनका मुख्य आहार मछली है।

उदभव : करोडों वर्ष पूर्व जब गर्भरक्तधारी पक्षियों तथा स्तनपायी जंतुओं का प्रादुभार्व नहीं हुआ था।

विस्तार : भारत के सिन्धु, गंगा, ब्रहमपुत्रऔर महानदी तथा इनकी सहायक नदियों में तथा म्यामांर के इरावदी तथा अराकान नदियों में।

हिन्दी नाम : घड़ियाल

अंग्रेजी नाम : Gharial

वैज्ञानिक नाम : Gavialis gangeticus

आकार : लम्बाई 6.75 मी0 तक

वजन : 150 किलोग्राम

चिडियाघर में आहार:जिन्दा मछली

प्रजनन काल : दिसम्बर-जनवरी
इंक्युबेशबन अवधि : 72-92 घंटा, 30-40 सेल्सियस तापमान पर

हैचलिंग : लम्बाई- 325-375 मि0मी0, वजन- 75-97 ग्राम
अण्डे की संख्या : कुछ से दर्जनों की संख्या में

जीवन काल : करीब 100 वर्ष

प्राकृतिक कार्य : प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति का अस्तित्व कायम रखना, मछलियों की संख्या नियंत्रित करना तथा नदियों की उत्पादकता बनाए रखना आदि।
प्रकृति में संरक्षण स्थिति : संकटापन्न (Endangered);
कारण : अविवेकपूर्ण मानवीय गतिविधियों (यथा नदियों में अत्यधिक घुसपैठ तथा विदोहन) के कारण इनके प्राकृतवास (Habitat) का सिमटना एवं उसमें गुणात्मक ह्रास (यथा आहार, जल एवं शांत आश्रय-स्थल कि कमी होना), चमड़ा के लिए शिकार तथा मानव-हित से टकराव (यथा जान-माल की क्षति आदि) के कारण हत्या.
वैधानिक संरक्षण दर्जा : अति संरक्षित, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची - १ में शामिल.

बुधवार, 19 मई 2010

घास और झाड़ी के सहारे चुपके-चुपके पहुँचते हैं और अचानक आक्रमण कर मार डालते हैं

इन्हें झाड़ीवाले पर्णपाती जंगल पसन्द हैं। ये समूह में रहते हैं और एक समूह में 10-20 जानवर हो सकते हैं जिसका नेतृत्व एक नर करता है। इनका आहार हिरण, जंगली सुअर तथा अन्य शाकभक्षी जानवर हैं। ये अपने शिकार के नजदीक तक घास और झाड़ी के सहारे चुपके-चुपके पहुँचते हैं और अचानक आक्रमण कर उन्हें मार डालते हैं। जानवरों का राजा कहा जानेवाला सिंह एक शक्तिशाली जानवर है। अफ्रिका में पाए जानेवाले सिंह एशियाई सिंह से कुछ भिन्न दिखते हैं। अफ्रिका सिंह का भरपूर केसर होता है तथा पूँछ के शीर्ष पर लम्बे काले बाल तथा पेट पर पर घने बाल होते हैं। अफ्रिकी और एशियाई सिंहों के बीच प्रजनन होता है और वर्णसंकर सिंह अधिकतर चिड़ियाघरों में प्रदर्श के रूप में रखे गए हैं।

विस्तार :  प्राचीन एवं मध्यकाल में ईरान तथा इराक सहित उत्तर एव6 मध्य भारत में नर्मदा नदी तक फैलाववाले एशियाई सिंह अब केवल गुजरात (कठियावाड़) के गीर के वनों में पाए जाते हैं।

हिन्दी नाम :  सिंह, बब्बर शेर

अंग्रेजी नाम :  Asiatic Lion

वैज्ञानिक नाम :  Panthera leo

आकार :  नर- २.७५-२.९० मी० लम्बा, पुँछ सहीत

वजन :  150-240 किलोग्राम

प्रजनन काल :  पूरा वर्ष

गर्भकाल :  116 दिन

चिडियाघर में आहार :  महिष माँस, चिकेन एवं दूध

प्रजनन हेतू परिपक्वता :  ढ़ाई से तीन वर्ष

प्रतिगर्भ प्रजनित शिशु की संख्या : एक से छ:

जीवन काल :  करीब २० वर्ष प्राकृतवास में, 24 वर्ष का जीवनकाल बंदी अवस्था में देखा गया है।

प्राकृति कार्य : प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति का अस्तित्व कायम रखना, शाकभक्षी जानवरों की संख्या नियंत्रित कर वनस्पति एवं शाकाहारी जानवरों के बीच संतुलन बनाये रखना आदि.

प्रकृति में संरक्षण स्थिति :  संकटापन्न (Endangered);

कारण : अविवेकपूर्ण मानवीय गतिविधियों (यथा वनों की अत्यधिक कटाई, चराई, वनभूमि का अन्य प्रयोजन हेतु उपयोग) के कारण इनके प्राकृतवास (Habitat) का सिमटना एवं उसमें गुणात्मक ह्रास (यथा आहार,जल एवं शांत आश्रय-स्थल कि कमी होना), शारीरिक अवयवों (यथा चमड़ा, हड्डी, नाखून आदि) के लिए तथा मानव-हित से टकराव (यथा मवेशियों को क्षति आदि) के कारण हत्या.

वैधानिक संरक्षण दर्जा : अति संरक्षित, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची - १ में शामिल.

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

झारखण्ड राज्य मॆं क्या थी वन्यजीवों की संख्या वर्ष-2002?

            Wildlife Census Data-2002

_______________________________________________________________________________________
Tiger                                                    34
Leopard                                              164
Elephant                                              772
Barking Deer                                      3672
Cheetal                                                16384
Sambhar                                              3052
Chausingha                                          62
Common Langur                                 44920
Common Otter                                     98
Hare                                                      2718
Hyena                                                    613
Indian Bison                                         256
Indian Giant Squirel                           395
Jackel                                                   559
Jungle Cat                                            11
Monkey                                                64685
Nilgai                                                    1262
Pangolin                                               57
Porcupine                                            425
Sloth Bear                                            1808
Wild Boar                                            18550
Wild Dog                                              537
Wolf                                                      874
Dhanesh                                               56
Peafowl                                                5684
Jungle Fowl                                        325

(Census conducted between 29.01.2002 and 04.02.02)


शुक्रवार, 26 मार्च 2010

तेज घुमावदार गति इनकी सुरक्षा का प्रमुख साधन है

इनका वास-क्षेत्र आमतौर पर बंजर पड़ी भूमि या पथरीले पहाड- हैं जहाँ ये अपना भूमिगत माँद बनाते हैं। इन माँदों की खासियत यह होती है कि इनमें एक केन्द्रिय कक्ष और अनेक निकास-द्वार होते हैं। दिनभर ये अपनी माँद में विश्राम करते हैं और शाम होते ही अपने आहार की तलाश में निकल पड़ते हैं। चूहे, जमीनी पक्षी, दीमक आदि इनका मुख्य आहार है। तरबूजा, बेर, खेत में लगे चना-फली आदि भी इन्हें पसन्द है। मादा शिशुओं को जन्म देती है और पालती है। नर जोड़ीदार भी शिशुओं का ख्याल रखता है।
यह देश के मैदानी क्षेत्र में सर्वाधिक पाई जानेवाली लोमड़ी प्रजाति है। ये देखने में सुन्दर, छोटे धूसर रंग का शरीर एवं पतले बादामी रंग के पैरवाले होते हैं जिनकी पूँछ का शीर्ष काला होता है। लोमड़ी खुले क्षेत्र का वन्यप्राणी है जो मानवीय आवादी के समीप भी रहते हैं।
नाम : लोमड़ी  
अंग्रेजी नाम : (Indian Fox)
वैज्ञानिक नाम :  (Vulpes bengalensis)
विस्तार : सम्पूर्ण भारत ।
आकार : सिर एवं शरीर करीब 45-60 से0मी0 तथा पूँछ 25-35 से0मी0 लम्बा।
वजन : 1.8 से 3.2 किलोग्राम।
चिडियाघर में आहार : महिषमांस एवं चिकेन ।
प्रजनन काल : शीतकाल।
प्रजनन हेतू परिपक्वता : करीब 11 माह।
गर्भकाल : 50-53 दिन।
प्रतिगर्भ प्रजनित शिशु की संख्या : सामान्यत: चार शिशु (लम्बाई 18-20 से0मी0, वजन 52-65 ग्राम) ।
जीवन काल : करीब 16 वर्ष ।
प्राकृति कार्य : प्रजनन द्वारा अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखना, चूहों, दीमक आदि की संख्या पर प्राकृतिक नियंत्रण में सहायता करना आदि।
प्रकृति में संरक्षण स्थिति : असुरक्षित (Threatened)|
कारण : अविवेकपूर्ण मानवीय गतिविधियों ( यथा वनों की अत्यधिक कटाई, चराई, वनभूमि का अन्य प्रयोजनों हेतु उपयोग आदि) के कारण इनके प्राकृतवास (Habitat) का सिमटना एवं गुणात्मक ह्रास (यथा आहार, जल एवं शांत आश्रय-स्थल की कमी होना), घरेलू पक्षियों-मुर्गी, बतख, हँस आदि को क्षति के कारण इनकी हत्या ।
वैधानिक संरक्षण दर्जा : संरक्षित,  वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची II में शामिल।

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

बन्द करो ये पुरस्कार : ट्रिपल खस्सी प्रतियोगिता!


राँची के नामकुम में आयोजित ट्रिपल खस्सी प्रतियोगिता ग्रीन गार्डन क्लब ने बेरियस बेक क्लब को 3-2 से हराकर जीत ली। इस प्रतियोगिता में 28 टीमें खेलीं। प्रतियोगिता का इतिहास 37 वर्षो का रहा है। ये एक फुटबॉल प्रतियोगिता है जिसका आयोजन शहर के नजदीक हुआ। ऐसी प्रतियोगिता देहाती एवं वन आच्छादित क्षेत्रो में देखने को मिलते थे। मेरी समझ से इस तरह के पुरस्कार उन दिनों की याद दिलाती है जब लोगो के पास मुद्रा की कमी रही होगी एवं पशुधन की उपलब्धता थी। तब गाँव के प्रधानों ने अपने खिलाड़ियों को प्रोत्तसाहित करने के लिए अपने घर के पालतु पशु को उपहार स्वरुप भेंट दिया होगा।
लेकिन आज के परिपेक्ष में जब आम लोग पहले से ज्यादा शिक्षित एवं आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत सबल हैं, तब इस तरह से पशुओं के प्रति व्यवहार एवं फुटबॉल प्रतियोगिता में डबल खस्सी प्रतियोगिता/ ट्रिपल खस्सी प्रतियोगिता का आयोजन कहाँ तक व्यवहारिक है। जिस प्रतियोगिता के आयोजन में हीं खून की बू आ रही हो, वह समाज एवं खेल को कौन मुकाम मिलेगा, ये समय बतलाऐगा। मैं सिर्फ यही कहूँगा कि इस खस्सी प्रतियोगिता से न तो फुटबॉल का विकास होगा और न तो खिलाड़ियो का। ये सिफ खाओ-पिओ मस्त रहो की उक्ति को चरितार्थ करता है। जबकि दूसरी तरफ समाज में पालतु पशुओं के प्रति घृणित व्यहार का समाजीकरण करने का अघोषित प्रयास मात्र है जिसे अबिलम्ब बंद करने की आवश्यता है। ऐसा नहीं कि मैं एक शाकाहारी व्यक्ति हूँ जिसके चलते उक्त कृत मुझे नहीं भाता, लेकिन ज़रा सोचिए क्या एक शिक्षित समाज को खेल प्रतियोगिता के माध्यम से उक्त कृत शोभा देता है। अगर पुरस्कार हीं देना है तो उसका स्वरूप तो पूरे विश्व की खेल प्रतियोगिताओं में रोज दिखता है, फिर ये पाषाणयुगी क्रियाकलाप क्यों? इस तरह के पुरस्कार से खेलों का विकास होने से रहा, दूसरी तरफ नवनिहालों के बाल मन पर भी खेल के प्रति क्या अवधारणा बनेगी, जरा इसका भी विवेचना कीजिए। चुँकि मैं लम्बे समय तक खिलाड़ी के रूप में विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग ले चुका हूँ, इसलिए मुझे आज ये पुरस्कार कहीं चुभ रहा है। पुरस्कार को अब तो सामाचर पत्र भी महिमामंडित करने लगे हैं एवं फोटो के साथ सामाचार का प्रकाशन करने लगे हैं ,जो अशुभ संकेत है इन निरीह पशुओं के प्रति।

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