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मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

खतरे की घंटीःस्वच्छ पर्यावरण की कल्पना करते हैं तो किसे संरक्षण देना होगा?

गिद्ध को समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। इसे मुर्दाखोर के रूप में जाना जाता है। ग्रंथो में इसकी दृष्टि एवं ताकत का बखान मिलता है लेकिन क्या आपने कभी सोंचा है कि ये अपरोक्ष रूप से हमें क्या देते हैं? ये इस प्रकृति के अनमोल धरोहर हैं, जैव विविधता के सम्वाहक हैं, वहीं पर्यावरणीय संतुलन बनाने में सहयोगी बन कर एक अहम रोल अदा करते हैं।
इस भू-मंडल पर जीवन मृत्यु का क्रम चलता है। मानव शरीर का मृत्युपर्यन्त संस्कार तो हमलोग कर देते हैं लेकिन क्या आपने कभी इस ओर ध्यान दिया है कि पालतू एवं वन्य जन्तुओं की मृत्यु के उपरांत उनके शरीर का प्रबन्धन कैसे होता है? प्रकृति ने अपनी व्यवस्था सुदृढ़ीकरण के लिए गिद्धों का प्रावधान रखा है जो दुषित लाश को भी अपने उदर में उतार कर अपना जीवन सँवारता है जिससे सिर्फ महामारी एवं संक्रमण होने के खतरे को खत्म करता है बल्कि पर्यावरण में स्वच्छता मंत्रालय का कार्य भी निपटाता है। इनकी उपयोगिता तब समझ में आती है जब जानवरों की मृत्यु विहड़ो एवं दुरुह क्षेत्रों में हो जाती है एवं उनके लाश को नष्ट करना मानव पहुँच से दूर हो जाता है तब ये प्राणी अपनी देखने के विलक्षण प्रतिभा का फायदा उठाकर वहाँ पहुँच कर उससे होने वाली सम्भावित महामारी के खतरे से बचाता है। ये पर्यावरणीय व्यवस्था का बहुत अहम पहलू है कि गिद्ध हीं एक ऐसी प्रजाति है जो सड़े-गले मांस को खा सकता है। वे सड़े हुए, एंथ्रेक्स और हैजा बैक्टीरिया युक्त मांस खा सकते हैं। अतः हमें जीवन के खतरों को कम करना है एवं स्वच्छ पर्यावरण की कल्पना करना है तो गिद्धों को संरक्षण देना होगा। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने गिद्धों की लगातार हो रही कमी को नोटिस किया है एवं सम्भावित खतरों को भाँ कर पूरे भारत में गिद्ध परियोजनाका शुभारम्भ किया है ताकि तेजी से कम हो रहे गिद्ध को संरक्षण एवं सम्बर्ध किया जा सके।
पर्यावरण में गिद्धों की भूमिका:
पर्यावरण के संतुलन में गिद्धों की बड़ी भूमिका है, सदियों से ये गिद्ध ही मरे हुए जानवरों के अवशेषों को खा कर देखा जाए तो धरती पर पडी गन्दगी को ख़त्म करते रहे हैं जिससे बहुत सी बिमारियाँ संक्रमण की रोकथाम होती है। प्राकृतिक रूप से भोजन चक्र में गिद्धों की भूमिका अहम रही है और खाद्य श्रंखला में उनका महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन पिछले एक दशक में गिद्ध प्रजाति लुप्त होने की कगार पर पहुँच गई है।
प्रकृति के इस चक्र में साफ-सफाई का काम करने वाले गिद्दों की संख्या पिछले एक दशकों में एकाएक घट गई है, लगभग सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए भारत सरकार ने प्रयास शुरु कर दिए हैं। इसके तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया है जिसके कारण गिद्धों की मौत हो रही थी। संरक्षण कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 12 सालों में गिद्धों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से 97% की कमी आई है और वे विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं।
एक चेतावनी: वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगले दस सालों में एशियाई गिद्ध विलुप्त हो सकते हैं
डायक्लोफेनिक [Diclofenac] एक ज़हर, जिससे गुर्दे खराब व काले पड़ने लगे


मवेशियों के बीमार पड़ने पर पशु चिकित्सक अक्सर डाइक्लोफेनेक दवा के उपयोग की सलाह देते आए हैं। इस दवा से मवेशियों का ज्वर दर्द दूर हो जाता है लेकिन इस दवाई को खाने के बाद यदि किसी पशु की मौत हो जाती है तो मरने पर गिद्धों का भोजन बने मवेशी, गिद्धों को भी मौत की नींद सुलाने लगे। भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हुए सर्वेक्षणों में मरे हुए गिद्धों के शरीर में डायक्लोफ़ेनाक के अवशेष मिले हैं। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इस दवा के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो उनका मांस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचता है, जिससे वे मौत का शिकार हो जाते हैं। इन्हीं कारणों से भारत में गिद्धों की संख्या तेजी से कम हो रही है। इसका मुख्य कारण बताया जा रहा है कि पशुओं को दर्दनाशक के रुप मे एक दवा डायक्लोफ़ेनाक दी जाती है।

पर्यावरण को बचाए रखने में महत्वपूर्ण साबित हो रहे गिद्धों को भी बचाने के लिए पक्षी वैज्ञानिकों ने शोध किया। पता चला कि 1980 से बाजार में बिक रही डाइक्लोफेनेक दवा से मरे मवेशियों की वजह से गिद्धों में बिसरल गौटबीमारी मिली। इस बीमारी से गिद्धों के गुर्दे खराब काले पड़ने लगे थे, जिससे उनकी कुछ दिनों में मौत होने लगी।

रेगिस्तानी इलाकों के मुख्यतया पाए जाने वाले गिद्धों की संख्या सिर्फ गुजरात में ही 2500 से घटकर 1400 रह गई है। कभी राजस्थान मध्यप्रदेश में भी गिद्ध भारी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन अब बिरले ही कही दिखाई देते हों
प्रजनन:

इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, गिद्ध जोड़े साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देते हैं। भारत मे कभी गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थी : बियर्डेड, इजिप्शयन, स्बैंडर बिल्ड, सिनेरियस, किंग, यूरेजिन, लोंगबिल्ड, हिमालियन ग्रिफिम एवं व्हाइट बैक्ड। इनमें से चार प्रवासी किस्म की हैं।

पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं का सर्वेक्षण रिपोर्ट क्या कहते हैं:

  • सफ़ेद पूँछ वाले एशियाई गिद्धों की संख्या 1992 की तुलना में 99.9 प्रतिशत तक कम हो गई है।
  • इसके अनुसार लंबे चोंच वाले और पतले चोंच वाले गिद्धों की संख्या में भी इसी अवधि में 97 प्रतिशत की कमी आई है।
  • ज़ूलॉजिकल सोसायटी ऑफ़ लंदन के एंड्र्यू कनिंघम इस रिपोर्ट के सहलेखक भी हैं. वे कहते हैं, "इन दो प्रजातियों के गिद्ध तो 16 प्रतिशत, प्रतिवर्ष की दर से कम होते जा रहे हैं।"
  • उनका कहना है, "यह तथ्य अपने आपमें डरावना और विचलित करने वाला है कि सफ़ेद पूँछ वाले गिद्ध हर साल 40 से 45 प्रतिशत की दर से कम होते जा रहे हैं।"
  • शोधकर्ताओं ने सलाह दी थी कि जानवरों को डाइक्लोफ़ेनाक नाम की दर्दनाशक दवा को बंद कर देना चाहिए।
  • भारत सरकार ने इसे वर्ष 2006 में प्रतिबंधित भी कर दिया गया था लेकिन भारतीय और ब्रिटिश शोधकर्ताओं का कहना है कि इस प्रतिबंध का कोई ख़ास असर नहीं हुआ है। उनका कहना है कि जानवरों के लिए डाइक्लोफ़ेनाक दवा के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन अब लोग मनुष्यों के लिए बन रही दवा का उपयोग जानवरों के लिए कर रहे हैं। उनका कहना है कि दवा का आयात किया जा रहा है और इसका उपयोग हो रहा है।
  • इससे पहले शोधकर्ताओं ने डाइक्लोफ़ेनाक की जगह मेलोक्सिकैम [Meloxicam] नाम की दवा के उपयोग की सलाह दी थी लेकिन चूँकि वह डाइक्लोफ़ेनाक की तुलना में दोगुनी महंगी है इसलिए इसका उपयोग नहीं हो रहा है।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि यदि गिद्धों के विलुप्त होने की रफ़्तार यही रही तो एक दिन ये सफ़ाई सहायक भी नहीं रहेंगे
  • जैसा कि वे बताते हैं 90 के दशक के शुरुआत में भारतीय उपमहाद्वीप में करोड़ों की संख्या में गिद्ध थे लेकिन अब उनमें से कुछ लाख ही बचे हैं
  • वैज्ञानिकों का कहना है कि गिद्धों को केवल एक प्रजाति की तरह बचाया जाना ज़रुरी है बल्कि यह पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी ज़रुरी है वे चेतावनी देते रहे हैं कि गिद्ध नहीं रहे तो आवारा कुत्तों से लेकर कई जानवरों तक मरने के बाद सड़ते पड़े रहेंगे और उनकी सफ़ाई करने वाला कोई नहीं होगा और इससे संक्रामक रोगों का ख़तरा बढ़ेगा।
    डायक्लोफेनिक दवा एक ज़हर, जो टनों की संख्या में गाँव-शहरो में उपलब्ध है
  • संरक्षण के लिए उठाए गए कदम :
  • पशुओं के इलाज के दौरान उन्हें दी जाने वाली दर्द निवारक दवा डायक्लोफेनिक ही गिद्धों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है, यह बात आज से करीब दो दशक पहले ही उजागर हो गई थी। डायक्लोफेनिक से गिद्धों की मौत होने की जानकारी करीब 18 साल पहले ही मिल गई थी, लेकिन तब से लेकर आज तक गिद्धों में दवा के असर को कम करने का कोई तरीका ढूंढ़ा नहीं जा सका है। भारत सरकार भी हाल ही में हुए सर्वेक्षणों की रिपोर्ट आने के बाद मान गई कि इस दवाई के कारण ही गिद्धों की मौत हो रही है नतीजतन भारत सरकार से संबद्ध नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ़ ने डायक्लोफ़ेनाक पर प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा की थी जिसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वीकार कर डायक्लोफ़ेनाक की जगह दूसरी दवाइयों के उपयोग को मंज़ूरी दे दी।
ब्रिटेन के रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध विभाग के प्रमुख डेबी पेन का कहना है कि गिद्धों की तीन शिकारी प्रजातियाँ चिंताजनक रुप से कम हुई हैं, उनका कहना है, "हालांकि अब भारत में डायक्लोफ़ेनाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन भोजन चक्र से इसका असर ख़त्म होने में काफ़ी वक़्त लगेगा" गौरतलब है की टनों की संख्या में यह दवा गाँव-शहरो में उपलब्ध है, निरक्षरता और इस सम्बन्ध में कोई समुचित जानकारी नही होने से इस पर लगाए गए प्रतिबन्ध इतनी जल्दी असरदार साबित होंगे इसमें शक लगता है।
संरक्षण कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 12 सालों में गिद्धों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से 97% की कमी आई है और वे विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं।

संरक्षण के लिए उठाए गए एक प्रायोगिक कदम :

नेपाल में जारी एक प्रयास के अंतर्गत गिद्धों के संरक्षण के लिए एक परियोजना की परिकल्पना सामने आयी है। इस परिकल्पना अंतर्गत एक रेस्तरां खोला गया है जिसका नाम "गिद्ध रेस्तरां" रखा गया है। ये "रेस्तरां" एक खुले घास क्षेत्र जहाँ स्वाभाविक रूप से, बीमार और पुराने गायों के मरने के बाद रख कर गिद्धों को खिलाया जाता है

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

झारखण्ड का हाल : वन्य जीवों की हत्या कर सांस्कृतिक पह्चान बनती है

24 मार्च 2009 को बेड़ो (राँची) के सालो टोली जंगल में 21 पहड़ा पूर्वी (आदिवासी समुदाय) के तत्वाधान में आयोजित वार्षिक बासा शिकार के दौरान बतौर मुख्य अतिथि समाजसेवी सह शिक्षाविद डा0 रवींद्र भगत ने कहा,बासा शिकार हमारी परम्परा और सांस्कृतिक पहचान है

तत्पश्चात मुख्य अतिथि महोदय शिकार करने वाले दल का अगुआई कर शुभारम्भ भी किया। शिकारी दल का नेतृत्व 21 पहड़ा राजा गन्दरू उराँव, डा0 रवींद्र भगत (मुख्य अतिथि) और 21 गाँवों के पाहन, महतो, दीवान, कोटवार ने संयुक्त रूप से हरवे-हथियार से लैस होकर ग्रमीणों के साथ मिलकर मासु, हुलासी, शहेदा, लतरातु, कुल्ली, सौंका, डोला और सगुदा के जंगलों में शिकार खेला। सांस्कृतिक पहचान के रक्षक एवं परम्परा के वाहक तथाकथिक सभ्रांत लोगों ने शिकार की परम्परा को निभाने के लिए वन्यजीवों की हत्या की जबकि दूसरी ओर वन विभाग का भारी-भरकम महकमा इस तरह की घटनाओं को वन्यजीवों को अपने हाल पर छोड़ कर अँधी-बहरी बनी तमाशबीन बनी हुई है। विभाग द्वारा किसी तरह की कोई सार्थक पहल अभी तक नहीं हो रही है कि वन्य जीव आशांवित हों कि अगले दिन उनकी हत्या नहीं होगी।

मेरा पक्ष इस ओर है कि सांस्कृतिक पहचान एवं परम्परा का निर्वहन होना चहिए, इसी में हमारीभारतीय सांस्कृतिक की विश्व-पटल पर अमीट छाप भी है, लेकिन परम्परा के नाम पर रुढ़ीवादीव्यवस्था को ढ़ोना कहाँ तक जायज है, इसकी भी समय-समय पर समीक्षा होनी चाहिए।

बासा शिकार की आदिवासी समुदाय में परम्परा बहुत पुरानी रही होगी, वो भी उस जमाने में जब आदिवासी लोग के पास भौतिक सुख-सुविधाऐं नहीं थी, वे जंगलों में निवास करते होंगे एवं उनके पास जीने के साधन के रूप में एवं भोजन स्वरूप वन्यजीव सुलभ उपलब्ध रहें होंगे। इसी पृष्टभूमि में सांस्कृतिक व्यवस्था का जन्म हुआ होगा कि शिकार सामुहिक रूप से किया जाय जिससे समुदाय का संस्कृति का आदान-प्रदान हो एवं इसी बहाने लोगों में मेल-जोल भी बढ़ जाय, लेकिन ये व्यवस्था उस समय की थी जब वन्य जीवों की बहुतया थी। उसी व्यव्स्था (परम्परा) को आज के परिपेक्ष में ढ़ोना कहाँ तक जायज है ये कहीं से भी एक समाजसेवी एवं शिक्षाविद को शोभा नहीं देती क्योंकि उन्हें भी ये जानकारी होगी कि आज वन्य जीवों की क्या स्थिति है। आज अधिकांश वन्य जीवों की प्रजातियों पर संकट आ गयी हैं एवं विलुप्ति के कगार पर हैं, फिर ये किस तरह की पहचान बनाना चाहते हैं, जब उसके साधनों को उनके बच्चे हीं किताबों के पन्नों पर देखेंगे।

इस तरह की रूढ़ीवादी एवं जैव व्यवस्था से खिलवाड़ करने वाले अबोध लोगों की भर्तस्ना सामाजिक स्तर पर तथा उनके कुकृत्यों को रोकने की पहल भी की जानी चाहिए, ऐसी मेरी राय है।

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